संपादकीय द्वारा वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक बांकेलाल निषाद “प्रणव”
‘हिन्दू धर्म’ जीवन पद्धति नहीं, एक साधना है — स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज
कर्मणा श्रेष्ठ वर्ण के बजाय जन्मना श्रेष्ठ वर्ण व्यवस्था को भारत पर थोप कर सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक विसंगतियों के रूप में उपेक्षित तीनों वर्णों को, तत्समय के धर्माधिकारियों कर्मकांडियों द्वारा विदेशी आक्रांताओं के लिए हजारों वर्षों तक गुलाम बनाये रखने के जिम्मेदार, धर्म के ये सियासी ठेकेदार भारत वर्ष के लिए संकट की काली छाया के रुप में अभिषप्त है। इन्हीं कर्मकांडियों पोंगापंथियों धर्म के सियासी ठेकेदारों की वजह से हखामनी आक्रांताओं से लेकर ब्रिटिश आक्रांता तक सोने की चिड़िया कहे जाने वाला भारत हजारों वर्षों तक गुलामी का दंश झेलने पर मजबूर रहा। इन सब विदेशी आक्रांताओं के कहर के बावजूद अनादिकाल से ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित गीतोक्त साधना के बल पर जब अज्ञान की अमावस्या में दुनिया सोई हुई थी तो उसे गीता ज्ञान की पूर्णिमा से प्रकाशित करने वाला भारत विश्व गुरु कहा जाने लगा । यहां तक कि इस दिव्य व ईश्वरीय ज्ञान के चमत्कार के सामने विदेशी आक्रांता भी अपने आपको पूर्णरूपेण समर्पित कर दिये और इसी गीतोक्त साधना के आध्यात्मिक ज्ञान के सम्मोहन में अपने आपको भौंरे बनकर हमेशा के लिए कैद हो गये। । कुछेक आक्रांताओं ने भारत के गौरवशाली सांस्कृतिक आध्यात्मिक विरासत को नामोनिशान मिटाने की भरसक कोशिश की परन्तु “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ” पर वे नाकाम रहे। यहां तक कि ब्रिटिश हुकूमत के अधीन भारत स्वामी रामकृष्ण परमहंस के कृपा पात्र शिष्य स्वामी विवेकानंद जी ने 1893 के शिकागो विश्व धर्म संसद में गीता ज्ञान का परचम लहराया । गीता ज्ञान जो ईश्वरीय वाणी है जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को कुरूक्षेत्र में उपदेशित चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में किया था, वह आध्यात्मिक ज्ञान की थाती आज भी अपनी शास्वतता की अमर कहानी यथार्थ गीता के रूप में बयां कर रही है । “हिंदी है हम वतन हैं हिन्दुस्तान हमारा” को मिटाने की कोशिशें आक्रांताओं द्वारा बहुत हुईं परन्तु परमहंस स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी महाराज के शब्दों में “हिंदू धर्म” जीवन पद्धति नहीं, एक साधना है” की वजह से यह साधना आज भी अविनाशी के रुप में जीवंत है। अब प्रश्न उठता है कि एक साधना है क्या ? विश्व गुरु विश्व गौरव से सम्मानित कालजयी धर्म-शास्त्र यथार्थ गीता के प्रणेता तत्व द्रष्टा महापुरुष परमहंस स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी महाराज बताते हैं कि हृदय स्थित जो एक ईश्वर का भजन करे वही हिंदू है । वे बताते हैं कि हिंदू जीवन पद्धति नहीं है यह एक साधना है। वे बताते हैं कि गीतोक्त साधना अर्थात अविनाशी योग अथवा भक्ति या ब्रम्हविद्या जो भी कहें यह अनादिकाल से ऋषि-मुनियों द्वारा शोधित भवसागर को पार करा देने वाली विद्या है उसका कभी विनाश नहीं हुआ। अनादिकाल से ऋषि-मुनियों की आध्यात्मिक लेबोरेट्री से निकला ब्रह्म को मिला देने वाली इस विधि को, इतिहास गवाह है सैकड़ों आक्रांताओं का दौर जारी रहा इस अविनाशी योग को मिटाने का, “सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारे” पर इस गीतोक्त साधना/ अविनाशी योग/ ब्रम्हविद्या पर आंच नहीं आयी। गीता के अध्याय चार के प्रथम श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन —
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम।
विवस्वान्मनवं प्राह मनुरिक्ष्वाकवेअ्ब्रवीत।।
समय के महापुरुष परमहंस स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी महाराज अपने उद्धरण में कहते हैं कि जातियां धर्म नहीं हैं जातियां- कुल – गोत्र कबीलों द्वारा निवास, शौर्य या व्यवसाय पर आधारित सम्मान पत्र है और विश्व में सर्वत्र है। पूज्य श्री स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज कहते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जो भारत में आक्रांताओं का कारण बना और उसका खामियाजा भारत को हजारों वर्ष गुलामी के दंश को झेलना पड़ा यह चारो वर्ण जन्मना (जन्म आधारित) नहीं हैं बल्कि (कर्मणा) कर्म आधारित है, ये योग साधना के क्रमोन्नति सोपान है अर्थात साधना -भजन के आधार पर साधक की ऊंची-नीची श्रेणियां हैं और यदि जिसे साधना का ज्ञान नहीं है तो वह न तो ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है न वैश्य है और न ही शूद्र ही है वह केवल जगत रुपी रात्रि में खोया अचेत निष्चेष्ट है। साधना क्रम का यह स्तर हर महापुरुषों ने अंतःकरण की योग्यता पर आधारित अपने उत्तराधिकारी घोषित किये चाहे ऋषि-मुनि , बुद्ध महावीर रामानंद कबीर रैदास नानक स्वामी रामकृष्ण परमहंस आदि सभी ने साधना के क्रमोन्नति सोपान को फालो किया जो आज हर गुरु घराना का आदर्श है । पूज्य श्री स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज के गुरु महाराज स्वामी परमानंद जी महाराज खुद इसके ज्वलंत उदाहरण हैं । छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के महापुरुष भगवान बुद्ध से उनके एक जन्मना ब्राह्मण शिष्य ने निवेदन में कहा कि भन्ते — “आप अपने वरिष्ठ शिष्यों को ब्राह्मण कहकर संबोधित करते हैं; क्या आप मुझे ब्राम्हण नहीं कहेंगे? मैं अच्छे कुल से जन्मा हूं, संस्कृत में मंत्र पढ़ता हूं, यज्ञ कर सकता हूं करा सकता हूं”। बुद्ध ने जवाब दिया कि “नहीं वत्स! कुल से या पढ़ने लिखने से ब्राह्मण नहीं होता। ब्राह्मण वह है जो जितेंन्द्रिय है, जिसमें मनोनिग्रह है। जो संयम पूर्वक श्वसन -क्रिया में लगा है, जो भीतर -बाहर निर्मल है, ब्रम्ह – चिंतन में जिसकी सुरत प्रवाहित है, मैं उसको ब्राह्मण कहता हूं “। ब्राह्मण के विषय में बुद्ध ने कोई नई बात नहीं की बल्कि उन्होंने चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में 2500 वर्ष पहले की बात भगवान श्री कृष्ण के श्रीमुख से निसृत वाणी गीता के संदेश को ही बताया:— शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रम्हकर्म स्वभावजम्।।***(18/42)
मन का शमन इंद्रियों का दमन, इंद्रियों को ईश्वर की ओर तपाना (तप) , स्वरूप की स्थिति दिलाने वाली साधना का अध्ययन और सरलता से ब्रह्म में विलय दिला देने वाली योग्यताएं जिसमें है वह ब्राह्मण है अर्थात ब्राह्मण के विषय में बुद्ध का कथन गीता के कथन का पुनरावृत्ति है। अब इसी तरह साधना के क्रमोन्नति सोपान की श्रेणी में अन्य तीन वर्ण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के विषय में देखें। शूद्र श्रेणी के साधक की एंट्री जब गुरु घरानों में होती है तब वह अंतःकरण से अबोध बालक होता है साधना भजन उसके लिए टेढ़ी खीर होती है तो उसके लिए -,परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्। 18/44* यहां शूद्र का अर्थ नीच नहीं अपितु अल्पज्ञ है निम्न श्रेणी का साधक ही शूद्र है जहां से होकर ब्राह्मण श्रेणी के साधक को भी गुजरना पड़ता है, जो महापुरुष अव्यक्त की स्थिति वाले हैं, अविनाशी तत्व में स्थित हैं उनकी तथा इस पथ पर अग्रसर अपने से उन्नत लोगों की सेवा में लग जाओ। इससे दूषित संस्कार शमन होते जाएंगे, साधना में प्रवेश दिलाने वाले संस्कार सबल होते जाएंगे। ये सेवाएं शूद्र का स्वभावजन्य कर्म है। अपने स्वभावजन्य कर्म करते – करते शूद्र साधक की तामसी गुण न्यून होने पर राजसी गुणों की प्रधानता तथा सात्विक गुण के स्वल्प संचार के साथ उसकी क्षमता वैश्य श्रेणी की हो जाती है। उस समय वही साधक इंन्द्रिय- संयम, आत्मिक संपत्ति का संग्रह स्वभावत: करने लगेगा। कर्म करते -करते उसी साधक में सात्विक गुणों का बाहुल्य हो जायेगा, राजसी गुण कम रह जायेंगे, तामसी गुण शांत रहेंगे। उस समय वही साधक शूद्र से वैश्य और वैश्य से क्षत्रिय श्रेणी में प्रवेश पा लेगा। अब उसमें शौर्य, कर्म में प्रवृत्त रहने की क्षमता, पीछे न हटने का स्वभाव सब भावों पर स्वामीभाव, प्रकृति के तीनों गुणों को काटने की क्षमता उसके स्वभाव में ढल जायेगी। ये है चारो वर्णों की साधनात्मक क्रमोन्नति सोपान की श्रेणी जो एक महापुरुष के शरण शानिध्य में रहकर भजन करने वाले साधक का अपने सद्गुरु के प्रति त्याग तपस्या व समर्पण का परिणाम है ,जिसमें सद्गुरु कृपा की अनिवार्यता अवश्यंभावी है। सद्गुरु भगवान की कृपा से ही अल्पज्ञ शूद्र श्रेणी का साधक एक न एक दिन ब्राह्मण स्थिति की यात्रा तय करते हुए ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है। इसी को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि — चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्वयकर्तारमव्ययम्।। सामाजिक व आर्थिक आधार पर देखा जाय तो वैदिक काल (ई०पू० 2500–2000) में भी वर्ण जन्मना न होकर कर्मणा था। वैदिक काल के एक ऋषि कहते हैं कि *”मैं कवि हूं मेरा पिता वैद्य है तथा मेरी माता अन्न पीसती है”* इस वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था वैदिक काल में कर्म पर आधारित थी जो बाद में उत्तर वैदिक काल के उत्तरार्ध में जन्म आधारित हो गयी और धीरे-धीरे इसकी जड़ें इतनी गहरी हो गयी कि यह आदि से लेकर आज तक भारतवर्ष के लिए एक अभिषाप बना हुआ है। अनादिकाल से ऋषि-मुनियों द्वारा शोधित प्रतिपादित साधनात्मक क्रमोन्नति सोपान के प्रति नकारापन रहा है तत्समय के धर्माधिकारियों का जिन्होंने धर्म को एक व्यवसाय के रूप में प्रयोग किया। जबकि आक्रांताओं की सफलता का मुख्य कारण यही नकारापन ही रहा है। इतना ही नहीं जन्मना वर्ण व्यवस्था को तत्समय के तथाकथित बुद्धिजीवी धर्माधिकारी वर्ग इसे अपने से निम्न वर्ग को मानसिक गुलाम बना कर उन पर तरह – तरह के अत्याचार किये और आजादी के बाद आज भी भारत इसका विनाशकारी दंश झेल रहा है। आज भी यह राष्ट्र की एकता और अखंडता में बाधक बना हुआ है। यथार्थ गीता इन धर्म के सियासी ठेकेदारों की काट है। पूज्य श्री स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज अपने उद्बोधन में या अपने धार्मिक साहित्य यथार्थ गीता इत्यादि में “गुणकर्मविभागश:” पर आधारित अनादिकाल से ऋषि-मुनियों द्वारा शोधित साधनात्मक क्रमोन्नति सोपान पर बल देते हैं और जिससे संसार में सामाजिक व्यवस्था के आधार पर ऊंच -नीच, भेद- भाव की खांई को पाटा जा सके और सम्मान से संसार कंधों पर कंधों मिलाकर लौकिक जीवन को जीते हुए गीतोक्त साधना पर आधारित पारलौकिक जीवन को सफल बना सके। यही हमारी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत रही है इसी गीतोक्त साधना को बुद्ध, महावीर स्वामी समुद्र पार विदेशों में चीन ताइवान कंबोडिया इंडोनेशिया जापान उत्तरी कोरिया दक्षिणी कोरिया इत्यादि देशों में प्रचारित प्रसारित किये। गीतोक्त साधना में अनादिकाल से ऐसा आकर्षण रहा है विदेशी आक्रांताओं को भी प्रभावित किया है चाहे सिकंदर महान रहा हो कनिष्क आदि। यहां तक कि ज्ञान की खोज में निकले विदेशी यात्रियों को भी गीतोक्त साधना प्रभावित किया चीनी यात्री फाह्यान और व्हेनसांग आदि इसके उदाहरण हैं। पूज्य श्री स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज कहते हैं कि गीतोक्त साधना पर आधारित भजन साधना के आधार पर वर्ण-व्यवस्था की ईश्वरीय मान्यता व प्रामाणिकता है यहां तक कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कुरूक्षेत्र में गीता उपदेश के समय “गुणकर्मविभागश:” का प्रतिपादन किया जिसकी यथावत व्याख्या 5200 वर्ष बाद 21 वीं सदी में पूज्य श्री परमहंस स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी महाराज द्वारा यथार्थ गीता के रूप में की गयी है जिसको उन्होंने ईश्वरीय आदेश से लिखा है। यथार्थ गीता के रूप में ईश्वर द्वारा प्रतिपादित यह सिद्धांत अनगिनत विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण के बावजूद आज भी अवतरण के रुप में देदीप्यमान प्रकाश पुंज में प्रकाशित हो रहा है और अज्ञान से आच्छादित संसार का मार्ग ज्ञान के प्रकाश से प्रशस्त कर रहा है। यही गीतोक्त साधना ही हिंदू धर्म है न कि जीवन शैली जो ईश्वर द्वारा प्रतिपादित है इसीलिए हजारों वर्ष आक्रांताओं के झंझावतों को झेलने के बाद भी अपने मूल स्वरूप में कायम है, “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारे”। पूज्य श्री स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज की ‘हिंदू धर्म’ के विषय में कहे गये इस कथन को देश और दुनिया को आत्मसात करना चाहिए उनके बताये मार्ग पर चलना चाहिए, सियासत ‘हिंदू धर्म’ के नाम पर नहीं होना चाहिए। बल्कि पूज्य श्री स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज की इस विचारधारा को वर्तमान सियासत को कनिष्क, अशोक सम्राट, बिंदुसार आदि जैसे महान सम्राटों की तरह प्रश्रय देना चाहिए। देश के चौथे स्तम्भ को मुर्गों की तरह बांग दे रहे कुकुरमुत्ते की तरह फैले पोंगापंथियों को छोड़ पूज्य श्री स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज की विद्या को प्रचारित प्रसारित करना चाहिए, जिससे देश व संसार के लोगों को गीतोक्त साधना का संदेश पहुंच सके। हिन्दू धर्म’ जीवन पद्धति नहीं, एक साधना है के व्याख्याकार पूज्य श्री स्वामी जी की चरणों में कोटि-कोटि नमन।